क्या कहू की धीरज बंधक हैं
सपनो का वो आकाश नही
हर एक फिजा हारी गैरत
क्यो बेटी एैसी बेहाल हुई
कुछ कोख मे मारी जाती हैं
कुछ मरन जन्म पे पाती हैं
कुछ शिक्छा से अन्भिग्न कर
जीवन भर सताई जाती हैं
कुछ दहेज की हैं उत्पीड़ण
कुुछ ससुराल जला दी जाती हैं
कुछ नामर्दो के ऐसिड से
चेहरे गवाई पाती हैं
ये तीन तलाक हैं एक कहर
लहू सम आसू रूलाती हैंं
जब तब चला इन बानो को
इसे अबला बना दी जाती हैं
मर्दो की नपुंसकता
बलात्कार बन कर उभरी
नारी देवी का नाम जहा
उसकी कैसी तस्वीर नई
मै धूंधता हू उस भारत को
जहा तख्त पल्टे जाते थे
स्त्री के सम्मान की खातिर
महाभारत रच जाते थे
क्यो राम के इस पावन धरा पर
राम रीत हमे याद नही
शर्म करो अरे मर्दो
नरी परित्रात करे मर्द त्रास नही
हॉं कर्म करो एैसे जग मे
मर्द गर्व बने अभिषाप नही
हा गर्व बने अभिषाप नहीं …….
कवि श्रीमंत झा।
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