ABDOMINAL STRAIN


Pain in the abdomen area could mean many possible things. Abdominal strains, or pulled abdominal muscle, will generally happen during intense or excessive exercising. For that reason, strains are very common in athletes or highly active individuals. Strained muscles could also happen when you make sudden, fast movements like coughing, sneezing, or lifting something heavy. You went too hard, and put excess strain on certain areas your body and tore or pulled a muscle.


WHAT ACTUALLY HAPPENS WHEN YOU STRAIN YOUR MUSCLES?


They overstretch to the point where they forcefully contracted (that should make you cringe just thinking about it). When the muscles are contracted like that, it makes them that much more vulnerable and susceptible to injury. You usually will not be able to visually see the abdominal strain injury from the outside. Although, if it is a serious enough strain there may be some bruising around the affected area.


HOW DO I KNOW IF I PULLED A STOMACH MUSCLE?


Here are some abdominal wall tear symptoms you may be experiencing if you are suffering from a strained or pulled abdominal muscle:


Pain in abdomen area that worsens when you move

Sudden muscle spasms or cramping

Bruising

Muscle weakness or stiffness

Difficulty walking, bending forward or sideways, or standing straight



These muscle strains can be mild, moderate or severe. The pain will decrease with time as your injured muscle heals. Depending on the injury, it could be a few days, or may last as long as a few months.


HOW CAN I TREAT MY ABDOMINAL STRAIN?


Here are a few things you can do that will help to ease the pain of a pulled stomach muscle:


Rest – This seems like common sense but is commonly ignored by competitive athletes wanting to get back in the game. When you don’t give your body time to rest it makes it worse, setting you back even further. Your abdominal muscles are used for almost all your movements, sitting, standing up, twisting, etc. This makes it very difficult to rest your abdominal muscle. If you are experiencing some pain and discomfort during these movements, we recommend you look into an abdominal muscle strain brace. BraceAbility offers a variety of binders, belts, wraps, and braces to help your abdominal strains.

Applying Ice & Heat – Applying ice and heat will help to relieve some pain and tenderness you might be experiencing.

Over-the-Counter Drugs – To help ease the pain and reduce inflammation, you can take over-the-counter anti-inflammatory medications, such as Ibuprofen.

Compression – Using compression will help to apply pressure and help the affected area. 



IS THERE A WAY TO PREVENT ABDOMINAL STRAINS?


Not all muscle strains can be avoided, but you may be able to reduce the risk of an abdominal muscle strain from occurring again with these preventative options:


Warm up – Let’s be honest, everyone thinks that you can just jump right into exercising without warming up. It is recommended that you spend 10- 20 minutes before you start your workout to get your muscles ready.

Recovery – You need to give your muscles time to recover. Make sure you are doing a cool down after an intense workout. If you participate in strenuous activities every day, make sure you are resting the muscles and not overworking affected areas day after day.

Maintaining good muscle strength – If your muscles are strong, it is less likely they will tear or become injured.

Diet – Eat healthy and drink lots of fluids, maintaining a healthy, balanced diet helps to strengthen bones and muscles.

Stretch – You should stretch before and after a workout. We know, its really easy to skip, but it is so important to make an effort to stretch.

Practice good posture – Maintain good posture when sitting or standing, and avoid sitting in one position for a long period of time which puts extra strain on your abdominal muscles. If you are looking for a way to improve your posture, check out our adjustable posture brace that can help to pull your shoulders back into a proper posture position.

Practice proper lifting techniques – When you lift heavy objects, properly bend at your knees and lift with your legs, with the weight close to your body.

Understand your body’s limitations – Avoid overworking your muscles, you know when your body needs to stop, so listen to it. If you do not currently exercise, start slowly and ease into more rigorous activity.



If your strain is sharp and you are experiencing extreme pain and you are not getting relief from any remedies, you need to consult a doctor. They will give you an examination and more than likely an ultrasound, which will help to see if there is just a tear or if there is actually a hernia present


सभी भाई बहनों को मेरा प्रणाम तथा हार्दिक अभिनंदन। आज मैं पुनः लाई हूँ एक और महिलाओं के लिए उपचार।

विषय है अनचाहे बालों का

तो हम सब जानते हैं महिलाओं के लिए सौंदर्य कितना मुख्य रहता है और सुंदर दिखना के लिए अनचाहे बालों को हटाना उससे भी अधिक महत्वपूर्ण। जिसके लिए आधुनिक युग मे रेज़र भाव बाल काटने के लिए उपकरण अथवा वैक्स आदि उपलब्ध है परन्तु क्या आप जानती हो कि यह आधुनिक युग मे उपलब्ध उपकरणों तथा उपायों से पूर्व भी हमारी भारत मे इसका उपचार किया जाता रहा है। जी हां आपने उचित सुना हमारे भारतीय संस्कृति में पहले से कई उपाए है अनचाहे बालों को हटाने के लिए। जिनमे से एक है चीनी का लेप ।

आधुनिकरण से बहुत से नुकसान हमारे शरीर को इस वातावरण को झेलने पड़ते हैं जैसे वैक्स को पुनः इस्तेमाल करना हो तो बहुत खर्चीला है और वारावरण का नुकसान अलग से परन्तु अगर हम चीनी के लेप वाला उपाए करें तो इसको हम बार बार इस्तेमाल कर सकते हैं और सबसे बढ़िया बात है कि यह वैक्स, रेज़र आदि से कम दर्द वाले तथा कम खर्चीला है और अनचाहे बालों के हटने के पश्चात मिलती है निखरी कोमल त्वचा और नए बाल भी आते हैं मुलायम।

प्रणाम मित्रगणों आपका पुनः स्वागत है मेरे इस सांस्कृतिक ब्लॉग लघिमा पुष्करणा में।

दोस्तों हमने अक्सर देखा होगा कि स्त्रियों को अपने दैनिक जीवन मे कई प्रकार की परेशानियों के जूझना पड़ता है। कुछ बच्पन से हो सकती हैं कुछ युवा तथा कुछ वृद्ध अवस्था मे। इसमे से एक परेशानी है स्तनों में सूजन।

स्तनों में सूजन के कारण:-
दोस्तो स्तनों में सूजन के यूं तो बहुत से कारण हो सकते हैं परंतु मुख्यता कारण माँ बनी स्त्रियों का है दूध पिलाना। जिसमे बच्चा दूध पीता है और चूचक भाव निप्पल को चबाता है और सहेलियों हम यह जानते ही हैं कि मांस को दबाने पर उसमे सूजन पैदा हो जाती है। क्योकिं हमारी मासपेशियों में दबाव के कारण के खिंचाव रहता है और यह असाधारण रूप से होता है।

उपचार:-
आज के आधुनिक युग मे प्रत्येक व्यक्ति आधुनिक होता जा रहा है और इसका कारण है यां तो उसे अपने प्राचीन तथा सांस्कृतिक उपाए करने में झिझक महसूस होती है यां उनको ज्ञात नही यां कुछ लोग इस लिए नहीं करते क्योकि उपचार हेतु सामग्री आसानी से नहीं मिलती।
परन्तु इस परेशानी के लिए आपको ज्यादा सामग्री ढूंडने की आवश्यकता नहीं। आपको केवल चाहिए पत्ता गोबी।
पत्ता गोबी को अच्छी प्रकार से धो लें और साफ कर लें। थोड़ा सा पौंछने के बाद अपने स्तनों को 5 मिनट तक खुला छोड़ दें तथा उसके उपरांत पत्ता गोबी के एक पत्ते को स्तन पर लगा कर हल्का सा बांध लें अथवा ब्रा पहन लें। यह बच्चे के दोबारा दूध पीने तक कर सकते हैं परंतु पत्ता गर्म होने पर तुरंत बदल दें।

आशा करते हैं आपको यह उपाय पसंद आया होगा। कृपया इस उपाय को औरों से सांझा अवश्य करें तथा हमारे फेसबुक पृष्ठ को पसंद करना न भूलें आप सबका प्रेम तथा साथ ही हमे यह निःशुल्क सेवा प्रदान करने को प्रेरित करता है। धन्यवाद।

प्रेरक प्रसंग, अवश्य पढें.....
ब्राह्मण के घर से
खाली हाथ कैसै जाएंगे
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पिछले दिनों मैं हनुमान जी के मंदिर में गया था जहाँ पर मैंने एक ब्राह्मण को देखा, जो एक जनेऊ हनुमान जी के लिए ले आये थे | संयोग से मैं उनके ठीक पीछे लाइन में खड़ा था, मेंने सुना वो पुजारी से कह रहे थे कि वह स्वयं का काता (बनाया) हुआ जनेऊ हनुमान जी को पहनाना चाहते हैं, पुजारी ने जनेऊ तो ले लिया पर पहनाया नहीं | जब ब्राह्मण ने पुन: आग्रह किया तो पुजारी बोले यह तो हनुमान जी का श्रृंगार है इसके लिए बड़े पुजारी (महन्थ) जी से अनुमति लेनी होगी, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें वो आते ही होगें | मैं उन लोगों की बातें गौर से सुन रहा था, जिज्ञासा वश मैं भी महन्थ जी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा | थोड़ी देर बाद जब महन्थ जी आए तो पुजारी ने उस ब्राह्मण के आग्रह के बारे में बताया तो महन्थ जी ने ब्राह्मण की ओर देख कर कहा कि देखिए हनुमान जी ने जनेऊ तो पहले से ही पहना हुआ है और यह फूलमाला तो है नहीं कि एक साथ कई पहना दी जाए | आप चाहें तो यह जनेऊ हनुमान जी को चढ़ाकर प्रसाद रूप में ले लीजिए | इस पर उस ब्राह्मण ने बड़ी ही विनम्रता से कहा कि मैं देख रहा हूँ कि भगवान ने पहले से ही जनेऊ धारण कर रखा है परन्तु कल रात्रि में चन्द्रग्रहण लगा था और वैदिक नियमानुसार प्रत्येक जनेऊ धारण करने वाले को ग्रहणकाल के उपरांत पुराना बदलकर नया जनेऊ धारण कर लेना चाहिए बस यही सोच कर सुबह सुबह मैं हनुमान जी की सेवा में यह ले आया था प्रभु को यह प्रिय भी बहुत है | हनुमान चालीसा में भी लिखा है कि - *हाथ बज्र और ध्वजा विराजे, कांधे मूज जनेऊ साजे* | अब महन्थ जी थोड़ी सोचनीय मुद्रा में बोले कि हम लोग बाजार का जनेऊ नहीं लेते हनुमान जी के लिए शुद्ध जनेऊ बनवाते हैं, आपके जनेऊ की क्या शुद्धता है | इस पर वह ब्राह्मण बोले कि प्रथम तो यह कि ये कच्चे सूत से बना है, इसकी लम्बाई 96 चउवा (अंगुल) है, पहले तीन धागे को तकली पर चढ़ाने के बाद तकली की सहायता से नौ धागे तेहरे गये हैं, इस प्रकार 27 धागे का एक त्रिसुत है जो कि पूरा एक ही धागा है कहीं से भी खंडित नहीं है, इसमें प्रवर तथा गोत्रानुसार प्रवर बन्धन है तथा अन्त में ब्रह्मगांठ लगा कर इसे पूर्ण रूप से शुद्ध बनाकर हल्दी से रंगा गया है और यह सब मेंने स्वयं अपने हाथ से गायत्री मंत्र जपते हुए किया है | ब्राह्मण देव की जनेऊ निर्माण की इस व्याख्या से मैं तो स्तब्ध रह गया मन ही मन उन्हें प्रणाम किया, मेंने देखा कि अब महन्त जी ने उनसे संस्कृत भाषा में कुछ पूछने लगे, उन लोगों का सवाल - जबाब तो मेरे समझ में नहीं आया पर महन्त जी को देख कर लग रहा था कि वे ब्राह्मण के जबाब से पूर्णतया सन्तुष्ट हैं अब वे उन्हें अपने साथ लेकर हनुमान जी के पास पहुँचे जहाँ मन्त्रोच्चारण कर महन्त व अन्य 3 पुजारियों के सहयोग से हनुमान जी को ब्राह्मण देव ने जनेऊ पहनाया तत्पश्चात पुराना जनेऊ उतार कर उन्होंने बहते जल में विसर्जन करने के लिए अपने पास रख लिया | मंदिर तो मैं अक्सर आता हूँ पर आज की इस घटना ने मन पर गहरी छाप छोड़ दी, मेंने सोचा कि मैं भी तो ब्राह्मण हूं और नियमानुसार मुझे भी जनेऊ बदलना चाहिए, उस ब्राह्मण के पीछे-पीछे मैं भी मंदिर से बाहर आया उन्हें रोककर प्रणाम करने के बाद अपना परिचय दिया और कहा कि मुझे भी एक जोड़ी शुद्ध जनेऊ की आवश्यकता है, तो उन्होंने असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा कि इस तो वह बस हनुमान जी के लिए ही ले आये थे हां यदि आप चाहें तो मेरे घर कभी भी आ जाइएगा घर पर जनेऊ बनाकर मैं रखता हूँ जो लोग जानते हैं वो आकर ले जाते हैं | मेंने उनसे उनके घर का पता लिया और प्रणाम कर वहां से चला आया, शाम को उनके घर पहुंचा तो देखा कि वह अपने दरवाजे पर तखत पर बैठे एक व्यक्ति से बात कर रहे हैं , गाड़ी से उतरकर मैं उनके पास पहुंचा मुझे देखते ही वो खड़े हो गए, और मुझसे बैठने का आग्रह किया अभिवादन के बाद मैं बैठ गया, बातों बातों में पता चला कि वह अन्य व्यक्ति भी पास का रहने वाला ब्राह्मण है तथा उनसे जनेऊ लेने आया है | ब्राह्मण अपने घर के अन्दर गए इसी बीच उनकी दो बेटियाँ जो क्रमश: 12 वर्ष व 8 वर्ष की रही होंगी एक के हाथ में एक लोटा पानी तथा दूसरी के हाथ में एक कटोरी में गुड़ तथा दो गिलास था, हम लोगों के सामने गुड़ व पानी रखा गया, मेरे पास बैठे व्यक्ति ने दोनों गिलास में पानी डाला फिर गुड़ का एक टुकड़ा उठा कर खाया और पानी पी लिया तथा गुड़ की कटोरी मेरी ओर खिसका दी, पर मेंने पानी नहीं पिया कारण आप सभी लोग जानते होंगे कि हर जगह का पानी कितना दूषित हो गया है कि पीने योग्य नहीं होता है घर पर आर.ओ. लगा है इसलिए ज्यादातर आर.ओ. का ही पानी पीता हूँ बाहर रहने पर पानी की बोतल खरीद लेता हूँ | इतनी देर में ब्राह्मण अपने घर से बाहर आए और एक जोड़ी जनेऊ उस व्यक्ति को दिए, जो पहले से बैठा था उसने जनेऊ लिया और 21 रुपए ब्राह्मण को देकर चला गया | मैं अभी वहीं रुका रहा इस ब्राह्मण के बारे में और अधिक जानने का कौतुहल मेरे मन में था, उनसे बात-चीत में पता चला कि वह संस्कृत से स्नातक हैं नौकरी मिली नहीं और पूँजी ना होने के कारण कोई व्यवसाय भी नहीं कर पाए, घर में बृद्ध मां पत्नी दो बेटियाँ तथा एक छोटा बेटा है, एक गाय भी है | वे बृद्ध मां और गौ-सेवा करते हैं दूध से थोड़ी सी आय हो जाती है और जनेऊ बनाना उन्होंने अपने पिता व दादा जी से सीखा है यह भी उनके गुजर-बसर में सहायक है | इसी बीच उनकी बड़ी बेटी पानी का लोटा वापस ले जाने के लिए आई किन्तु अभी भी मेरी गिलास में पानी भरा था उसने मेरी ओर देखा लगा कि उसकी आँखें मुझसे पूछ रही हों कि मेंने पानी क्यों नहीं पिया, मेंने अपनी नजरें उधर से हटा लीं, वह पानी का लोटा गिलास वहीं छोड़ कर चली गयी शायद उसे उम्मीद थी की मैं बाद में पानी पी लूंगा | अब तक मैं इस परिवार के बारे में काफी है तक जान चुका था और मेरे मन में दया के भाव भी आ रहे थे | खैर ब्राह्मण ने मुझे एक जोड़ी जनेऊ दिया, तथा कागज पर एक मंत्र लिख कर दिया और कहा कि जनेऊ पहनते समय इस मंत्र का उच्चारण अवश्य करूं -- | मैंने सोच समझ कर 500 रुपए का नोट ब्राह्मण की ओर बढ़ाया तथा जेब और पर्स में एक का सिक्का तलाशने लगा, मैं जानता था कि 500 रुपए एक जोड़ी जनेऊ के लिए बहुत अधिक है पर मैंने सोचा कि इसी बहाने इनकी थोड़ी मदद हो जाएगी | ब्राह्मण हाथ जोड़ कर मुझसे बोले कि सर 500 सौ का फुटकर तो मेरे पास नहीं है, मेंने कहा अरे फुटकर की आवश्यकता नहीं है आप पूरा ही रख लीजिए तो उन्हें कहा नहीं बस मुझे मेरी मेहनत भर का 21 रूपए दे दीजिए, मुझे उनकी यह बात अच्छी लगी कि गरीब होने के बावजूद वो लालची नहीं हैं, पर मेंने भी पांच सौ ही देने के लिए सोच लिया था इसलिए मैंने कहा कि फुटकर तो मेरे पास भी नहीं है, आप संकोच मत करिए पूरा रख लीजिए आपके काम आएगा | उन्होंने कहा अरे नहीं मैं संकोच नहीं कर रहा आप इसे वापस रखिए जब कभी आपसे दुबारा मुलाकात होगी तब 21रू. दे दीजिएगा | इस ब्राह्मण ने तो मेरी आँखें नम कर दीं उन्होंने कहा कि शुद्ध जनेऊ की एक जोड़ी पर 13-14 रुपए की लागत आती है 7-8 रुपए अपनी मेहनत का जोड़कर वह 21 रू. लेते हैं कोई-कोई एक का सिक्का न होने की बात कह कर बीस रुपए ही देता है | मेरे साथ भी यही समस्या थी मेरे पास 21रू. फुटकर नहीं थे, मेंने पांच सौ का नोट वापस रखा और सौ रुपए का एक नोट उन्हें पकड़ाते हुए बड़ी ही विनम्रता से उनसे रख लेने को कहा तो इस बार वह मेरा आग्रह नहीं टाल पाए और 100 रूपए रख लिए और मुझसे एक मिनट रुकने को कहकर घर के अन्दर गए, बाहर आकर और चार जोड़ी जनेऊ मुझे देते हुए बोले मेंने आपकी बात मानकर सौ रू. रख लिए अब मेरी बात मान कर यह चार जोड़ी जनेऊ और रख लीजिए ताकी मेरे मन पर भी कोई भार ना रहे | मेंने मन ही मन उनके स्वाभिमान को प्रणाम किया साथ ही उनसे पूछा कि इतना जनेऊ लेकर मैं क्या करूंगा तो वो बोले कि मकर संक्रांति, पितृ विसर्जन, चन्द्र और सूर्य ग्रहण, घर पर किसी हवन पूजन संकल्प परिवार में शिशु जन्म के सूतक आदि अवसरों पर जनेऊ बदलने का विधान है, इसके अलावा आप अपने सगे सम्बन्धियों रिस्तेदारों व अपने ब्राह्मण मित्रों को उपहार भी दे सकते हैं जिससे हमारी ब्राह्मण संस्कृति व परम्परा मजबूत हो साथ ही साथ जब आप मंदिर जांए तो विशेष रूप से गणेश जी, शंकर जी व हनूमान जी को जनेऊ जरूर चढ़ाएं... उनकी बातें सुनकर वह पांच जोड़ी जनेऊ मेंने अपने पास रख लिया और खड़ा हुआ तथा वापसी के लिए बिदा मांगी, तो उन्होंने कहा कि आप हमारे अतिथि हैं पहली बार घर आए हैं हम आपको खाली हाथ कैसे जाने दो सकते हैं इतना कह कर उनहोंने अपनी बिटिया को आवाज लगाई वह बाहर निकाली तो ब्राह्मण देव ने उससे इशारे में कुछ कहा तो वह उनका इशारा समझकर जल्दी से अन्दर गयी और एक बड़ा सा डंडा लेकर बाहर निकली, डंडा देखकर मेरे समझ में नहीं आया कि मेरी कैसी बिदायी होने वाली है | अब डंडा उसके हाथ से ब्राह्मण देव ने अपने हाथों में ले लिया और मेरी ओर देख कर मुस्कराए जबाब में मेंने भी मुस्कराने का प्रयास किया | वह डंडा लेकर आगे बढ़े तो मैं थोड़ा पीछे हट गया उनकी बिटिया उनके पीछे पीछे चल रह थी मेंने देखा कि दरवाजे की दूसरी तरफ दो पपीते के पेड़ लगे थे डंडे की सहायता से उन्होंने एक पका हुआ पपीता तोड़ा उनकी बिटिया वह पपीता उठा कर अन्दर ले गयी और पानी से धोकर एक कागज में लपेट कर मेरे पास ले आयी और अपने नन्हें नन्हा हाथों से मेरी ओर बढ़ा दिया उसका निश्छल अपनापन देख मेरी आँखें भर आईं, मैं अपनी भीग चुकी आंखों को उससे छिपाता हुआ दूसरी ओर देखने लगा तभी मेरी नजर पानी के उस लोटे और गिलास पर पड़ी जो अब भी वहीं रखा था इस छोटी सी बच्ची का अपनापन देख मुझे अपने पानी न पीने पर ग्लानि होने लगी, मैंने झट से एक टुकड़ा गुड़ उठाकर मुँह में रखा और पूरी गिलास का पानी एक ही साँस में पी गया, बिटिया से पूछा कि क्या एक गिलास पानी और मिलेगा वह नन्ही परी फुदकता हुई लोटा उठाकर ले गयी और पानी भर लाई, फिर उस पानी को मेरी गिलास में डालने लगी और उसके होंठों पर तैर रही मुस्कराहट जैसे मेरा धन्यवाद कर रही हो , मैं अपनी नजरें उससे छुपा रहा था पानी का गिलास उठाया और गर्दन ऊंची कर के वह अमृत पीने लगा पर अपराधबोध से दबा जा रहा था, अब बिना किसी से कुछ बोले पपीता गाड़ी की दूसरी सीट पर रखा, और घर के लिए चल पड़ा, घर पहुंचने पर हाथ में पपीता देख कर मेरी पत्नी ने पूछा कि यह कहां से ले आए तो बस मैं उससे इतना ही कह पाया कि एक ब्राह्मण के घर गया था तो उन्होंने खाली हाथ आने ही नहीं दिया |

अन्नप्राशन संस्कार किसी योग्य पड़ित द्वारा बताये गए शुभ मुहूर्त पर किया जाता है। शिशु को स्नान कराकर नया कपडा पहनाया जाता है। बहुधा इस अवसर पर शिशु को पारम्परिक परिधान धोती कुर्ता या लहंगा चोली पहनाया जाता है।

पूजा और हवन के साथ बच्चे के स्वास्थ्य और खुशी की कामना लिए अन्नप्राशन संस्कार आरम्भ किया जाता है। इसके बाद शिशु को पूजन के प्रसाद के रूप में ठोस आहार खिलाया जाता है। जिसमे खीर मुख्यता रहती है। चांदी के चम्मच, सिक्के का इस्तेमाल करके खाद्य पदार्थ ईश्वर का नाम ले कर खिलाया जाता है।

इस धार्मिक संस्कार समारोह में एक आनंददायी खेल के रूप में प्रतीकात्मक वस्तुओं को केले के पत्ते या चांदी के बर्तन में शिशु के सामने रख दिया जाता है। जिसमे से शिशु कोई एक अपने हाथ से उठता है। इसके लिए निम्नलिखित वस्तुओं का उपयोग किया जाता है।

पुस्तकें:- सीखने का प्रतीक

रत्न :-धन का प्रतीक

कलम:- ज्ञान का प्रतीक

मिट्टी:- संपत्ति का प्रतीक

खाना:- प्यार का प्रतीक खाद्य वस्तुएं

परिवार के लोग और मित्रगण बच्चा जब इन वस्तुओं में से कोई विकल्प चुनता है तो खुशी के साथ जयघोष करते हैं। ऐसा मान जाता है की शिशु जिस किसी बस्तु को पहले उठाता है भविष्य में उसी वस्तु से जुड़ा हुआ व्यवसाय या नौकरी करता है।

सरकारी जानकारी जाल स्थल की ओर से अन्नप्राशन के बारे में क्या कहा गया है।


अन्नप्राशन

पाँचवें या छठे महीने में, जब बालक के प्रायः दाँत निकल आते हैं, तब उसे उबला हुआ अन्न खिलाया जाता है। इसमें वह दही, मधु, घी, चावल आदि खिला सकते हैं। इस संस्कार के पूर्व शिशु अपने भोजन के लिए माता के दूध या गाय के दूध पर निर्भर रहता था। जब उसकी पाचन शक्ति बढ़ जाती है और उसके शरीर के विकास के लिए पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता पड़ती है, तब बालक को प्रथम बार अन्न अथवा ठोस भोजन दिया जाता है।

अन्नप्राशन का ऐतिहासिक समीक्षा :-

वैदिक संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रंथों में अन्नप्राशन संस्कार का विशिष्ट संस्कार के रुप में कोई उल्लेख या विवरण प्राप्त नहीं होता है, किंतु गृह्यसूत्रों में आकर इसके काल, भोजन एवं प्रकार का संक्षिप्त- सा विवरण मिलने लगता है, ( देखें, आश्व० ( 
1/16 ) 1-6 ), शांखायन० (1-27), आप० ( 16/1-2 ), हिरण्यकेशि० ( 2/ 5/ 1-3 ), भारद्वाज० ( 1/27 ), मानव० ( 1/20/ 1/ 6 ), वैखानस ( 2- 32 ), गोभिल तथा खादिर ने उसे छोड़ दिया है। पार० गृ० सू० 1.19 तथा मानव एवं शंख के अनुसार यह संस्कार जन्म से पाँचवें या छठे महीने में किया जाना चाहिए, किंतु मनु (2.34 ) तथा याज्ञवलक्य ( 1.12 ) दोनों ही इसके लिए से 12 मास के बीच का समय उपयुक्त मानते हैं तथा साथ ही यह मत भी कि पुत्र शिशु का अन्नप्राशन सम मासों ( 6, 8, 10, 12 ) तथा कन्या शिशु का विषम मासों ( 5, 7, 9, 11 ) में किया जाना अधिक उपयुक्त होता है, मनु तो उपर्युक्त शास्रीय विधान के अतिरिक्त कुल परंपरागत विधान को भी पूरी मान्यता प्रदान करते हैं, यद्यपि स्मृतिकारों के द्वारा इसके किसी प्रकार के अनुष्ठान का विधान नहीं किया है।

इसका जो आनुष्ठानिक विधान उपर्युक्त गृह्यसूत्रों में दिया गया है, उसके अनुसार एतदर्थ पाँच महीने के बाद किसी भी शुभ दिन का चयन कर प्रातः कालीन स्नानादि के उपरांत स्थालीपाक ( चावल की खीर ) पका कर उसमें से उसके आधारभूत भाग की दो आहुतियाँ तथा घी की एक आहुति निर्दिष्ट मंत्रों के साथ गृहस्थाग्नि में डाले।

क्षेत्रीय अनुष्ठानः :-

इनमें से क्षेत्र विशेष में प्रचलित कतिपय अनुष्ठानों का विधान निम्न रुपों में पाया जाता है -

i. तुलादान :-

उत्तर भारत के मैदानी भागों में प्रचलित पद्धतियों में इस अवसर पर तुलादान का विधान भी पाया जाता है। तद्नुसार शिशु को तुला के एक पल्ले पर रखकर, उसके दूसरे पल्ले पर उसके भार के बराबर अन्न रख कर उसे ब्राह्मण को दान कर दिया जाता है। यह कार्य घर के किसी वृद्ध व्यक्ति के द्वारा किया जाता है। इसका मंत्र है - 'ऊँ तेजोच्सि शुक्रममृतम्०' आदि।

ii. पात्रपूजन :-

इसके अनुसार अन्नप्राशन से पूर्व उन पात्रों का पूजन किया जाता है जिनमें कि शिशु को प्राशन कराया जाना होता है। इसमें इन पात्रों पर रोली से स्वास्तिक का चिन्ह अंकित कर उन्हें पुष्प, अक्षत आदि से यथाविधि पूजा जाता है। उल्लेख्य है कि संपन्न घरों में ये पात्र चाँदी के होते हैं, कम- से- कम प्राशन कराने वाली चम्मच तो चाँदी की होती ही है। निर्धन लोग इसके स्थान पर चाँदी के रुपये से खिला लेते हैं।

आनुष्ठानिक प्रक्रिया के अधीन किये गये संस्कार में एतदर्थ तैयार किये गये स्थालीपाक खीर की अग्नि में यथाविहित आहुतियाँ देने के उपरांत अवशिष्ट भाग में से शिशु को चाँदी की चम्मच या अन्य उपलब्ध साधन से पाँच बार थोड़ा- थोड़ा उसके मुंह में लगाकर इस संस्कार को संपन्न किया जाता है, अंत में मुख प्रक्षालनार्थ जल भी दिया जाता है।

अन्नप्राशन का सांस्कृतिक एवं प्रतीकात्मक महत्व :-

अन्न प्राशन संस्कार के लिए नियत विधान के पीछे यह भाव था कि माता लाड़- प्यार के कारण शिशु को अनिश्चित काल तक अपना स्तनपान न कराती रहे। इससे माता तथा शिशु दोनों के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है तथा शिशु को अन्य ठोस पोषक आहार न मिलने से उसका सम्यक रुप से शारीरिक विकास भी नहीं हो सकेगा। अतः समय आने पर इसे अवश्य किया जाना चाहिए।

पाँचवें महीने के बाद किये जाने के पीछे यह भाव है कि हमारी शारीरिक व बौद्धिक अभिवृद्धि में जिन तीन प्रकार के पदार्थों का योगदान होता है, वे हैं - (
1. ) पेय, (2. )लेह्य/ चूस्य तथा भोज्य, किंतु इनके लिए हमारी शारीरिक पाचन प्रक्रिया का विकास शनै:- शनै: होता है। शिशु- स्वास्थ्य विज्ञानियों का कहना है कि प्रारंभिक पाँच- छः महीने तक शिशु की भोजन- पाचन प्रणाली इतनी पुष्ट नहीं होती कि वह पेय के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ का पाचन कर सके। किंतु अब वह स्थिति विकसित हो चुकी होती है, जबकि उसे शारीरिक अभिवृद्धि के लिए माता के दुग्ध अथवा अन्य पेय पदार्थों के अतिरिक्त अन्नादि पदार्थों की भी आवश्यकता होने लगती है।

जीवन धारण के लिए तथा शारीरिक शक्ति के लिए अन्न का महत्व सर्वविदित है ही, इसलिए हमारे दार्शनिकों ने अन्न को प्राण ब्रह्म, यज्ञ और विष्णु कहा है। किंतु पेय पर निभर रहने वाला शिशु उसे अभी भोज्य ( ठोस ) रुप में ग्रहण नहीं कर सकता। दन्ताभाव के कारण न तो वह उसका चर्वण ही कर सकता है और न उसकी पाचन क्रिया ही उसे पचाने के लिए पुष्ट हुई होती है। अतः अन्नप्राशन के लिए उसका लेह्य पदार्थ, स्थालीपाक बनाया जाता है। संस्कार पद्धतियों के अनुसार प्राशनार्थ तैयार किये गये लेह्य चरु में वैदिक मंत्रों के साथ मधु, घृत तथा तुलसीदल भी मिश्रित किया जाता है। जिनका अपना- अपना महत्व माना गया है। इन प्रथम प्राशनीय पदार्थों का चयन इस विशेष आस्था के अंतर्गत किया जाता है कि हमारा भोजन हमारे शरीर के अतिरिक्त हमारे मन एवं बुद्धि को भी प्रभावित करता है(जैसा खाये अन्न,वैसा होये मन)।

इस संदर्भ में हमारे आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधाताओं का भी मानना है कि हमारे रहन- सहन के समान ही हमारे खान- पान का भी हमारे मन व बुद्धि पर प्रभाव पड़ता है। भोजन से पड़ने वाले इस अंतर को सात्विक पदार्थभोजी तथा मादक पदार्थभोजी व्यक्तियों में स्पष्टतः देखा जा सकता है। अतः शिशु को प्राणत्व प्रदान करने वाले तथा उसके चरित्र एवं स्वभाव के इस प्रथम अवसर पर उसका रुप ऐसा होना चाहिए, जो सुपाच्य होने के साथ- साथ उसके आने वाले जीवन में माधुर्य का तथा सात्विक प्रवृत्तियों का संचार करने वाला हो। अन्नप्राशन में उपर्युक्त लेह्य व्यंजन का विधान इसी दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है।

इसके लिए शायद "पायसम्' ( खीर ) को ही सबसे अधिक उपयुक्त समझा गया, क्योंकि इसका रुप पेय तथा भोज्य के बीच का होता है तथा प्रतीकात्मक रुप में लण्डुल एवं दुग्ध की श्वेतता, शर्करा/ मधु के माधुर्य के साथ पौष्टिकता एवं तेजस्विता प्रदान करने वाले घृत, रोगनाशक एवं पाचन शक्ति को पुष्ट करने वाले तुलसीदल के मिश्रण में निहित भावना से स्पष्टतः अवबोध्य है।

इस अवसर पर तुलादान के विधान के पीछे भी शायद यही धारणा रही होगी कि भारतीय संस्कृति में व्यक्ति के लिए स्वयं भोजन करने से पूर्व उसमें अन्य प्राणियों को भी भागीदार बनाना चाहिए। वेद भगवान् का भी आदेश है "तेन त्यक्तेन भुंजीथा: ( यजु० 
40.1 )। एकाकी भोजन को पाप कहा गया है। इसलिए हमारी शास्रीय संस्कृति में व्यक्ति भोजन से पूर्व बलिवैश्वदेव, गोग्रास आदि के रुप में अपने भोजन का कुछ अंश अन्य प्राणियों को देना आवश्यक समझता था। इसी सांस्कृतिक परंपरा का पालन करने के लिए शिशु के द्वारा अन्नाहार प्रारंभ करने से पूर्व उसके कुछ भाग का दान आवश्यक समझा गया था।

इसी प्रकार इस अनुष्ठान की संपन्नता के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले रजत पात्रों के संबंध में भी कहा जा सकता है कि इसका चयन संभवतः रजत की स्वच्छता, निर्मलता तथा निर्विकारता ( इस पर जंग आदि का प्रभाव न होने से ) के कारण एवं गुणों की दृष्टि से इसे शीतल एवं सात्विक माना जाने के कारण ही किया गया होगा। इसके अतिरिक्त इसके चयन में शिशु की भौतिक समृद्धि की वह भावना भी रही होगी अर्थात् समृद्ध परिवार में उत्पन्न होना।

यहाँ पर यह भी विचारणीय है कि इस अनुष्ठान में हाथ से भोजन कराने की भारतीय परंपरा को छोड़कर चम्मच से खिलाने के पीछे स्वास्थ्य संबंधी यह विचारणा रही होगी कि पानी से हाथ धोये जाने पर भी उसके नाखूनों तथा हाथ की अंगुलियों की पोरों में कीटाणु हो सकते है। शिशु में अभी इन कीटाणुओं से लड़ने की प्रतिरोधात्मक स्वसंचालित प्रणाली का विकास नहीं हुआ होता है। इसमें किसी प्रकार की असावधानी होने पर भोजन कराने वाले व्यक्ति के हाथों पर चिपके हुए कीटाणुओं का भोजन के माध्यम उसके अंदर प्रवेश हो सकता है, किंतु चाँदी की चम्मच के द्वारा यह कार्य संपादित किये जाने की स्थिति में इस सम्भावना का परिहार हो जाता है।

http://www.ignca.nic.in/coilnet/ruh0025.htm



संस्कारों में अन्नप्राशन संस्कार सप्तम संस्कार है। इस संस्कार में बालक को अन्न ग्रहण कराया जाता है। अब तक तो शिशु माता का दुग्धपान करके ही वृद्धि को प्राप्त होता था, अब आगे स्वयं अन्न ग्रहण करके ही शरीर को पुष्ट करना होगा, क्योंकि प्राकृतिक नियम सबके लिये यही है। अब बालक को परावलम्बी न रहकर धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनना पड़ेगा। केवल यही नहीं, आगे चलकर अपना तथा अपने परिवार के सदस्यों के भी भरण-पोषण का दायित्व संम्भालना होगा। यही इस संस्कार का तात्पर्य है।


छ्ठे माह में बालक का अन्नप्राशन-संस्कार किया जाता है। शास्त्रों में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है। गीता में कहा गया है कि अन्न से ही प्राणी जीवित रहते हैं। अन्न से ही मन बनता है। इसलिए अन्न का जीवन में सर्वाधिक महत्तव है।[1]


माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में आ जाते हैं, उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन-संस्कार कहा जाता है -


अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति।[1]


शिशु को जब 6-7 माह की अवस्था में पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त प्रथम बार यज्ञ आदि करके अन्न खिलाना प्रारंभ किया जाता है, तो यह कार्य अन्नप्रशन-संस्कार के नाम से जाना जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य यह होता है शिशु सुसंस्कारी अन्न ग्रहण करे।


शुद्ध एवं सात्त्विक, पौष्टिक अन्न से ही शरीर व मन स्वस्थ रहते हैं तथा स्वस्थ मन ही ईश्वरानुभुति का एक मात्र साधन है। आहार शुद्ध होने पर ही अंतःकरण शुद्ध होता है।


आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः।[1]


अर्थात् शुद्ध आहार से शरीर में सत्त्वगुण की वृद्धि होती है।


अन्न से केवल शरीर का पोषण ही नहीं होता, अपितु मन, बुद्धि, तेज़ व आत्मा का भी पोषण होता है। इसी कारण अन्नप्राशन को संस्कार रुप में स्वीकार करके शुद्ध, सात्त्विक व पौष्टिक अन्न को ही जीवन में लेने का व्रत करने हेतु अन्नप्राशन-संस्कार संपन्न किया जाता है। अन्नप्राशन का उद्देश्य बालक को तेजस्वी, बलशाली एवं मेधावी बनाना है, इसलिए बालक को धृतयुक्त भात या दही, शहद और धृत तीनों को मिलाकर अन्नप्राशन करने का का विधान है। छः माह बाद बालक हल्के अन्न को पचाने में समर्थ हो जाता है, अतः अन्नप्राशन-संस्कार छठें माह में ही करना चाहिए। इस समय ऐसा अन्न दिया जाता है, जो पचाने में आसान व बल प्रदान करने वाला हो।[1]


6-7 माह के शिशु के दांत निकलने लगते हैं और पाचनक्रिया प्रबल होने लगती है। ऐसे में जैसा अन्न खाना वह प्रारंभ करता है, उसी के अनुरुप उसका तन-मन बनता है। मनुष्य के विचार, भावना, आकांक्षा एवं अंतरात्मा बहुत कुछ अन्न पर ही निर्भर रहती है। अन्न से ही जीवनतत्त्व मिलते हैं, जिससे रक्त, मांस आदि बनकर जीवन धारण किए रहने की क्षमता उत्पन्न होती है। अन्न ही मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है, उसे भगवान् का कृपा-प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए।


शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित करके अन्न खिलाने का विधान बताया गया है। इस संस्कार में शुभमुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न शिशु को चटाते हैं और निम्नलिखित मंत्र बोलते हैं-


शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ।
एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुंचतो अंहसः।।[1]


अर्थात् हे बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यक्ष्मानाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं


16 संस्कार - क्या आप जानते हैं अपने 16 संस्कारों को

सनातन धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक कुल सोलह संस्कार बताए गये हैं, सभी मनुष्यों के लिए 16 प्रकार के संस्कारों का उल्लेख किया गया है और उन्हें कोई भी धारण कर सकता है l समस्त मनुष्यों को अपना जीवन इन 16 संस्कारो के अनुसार व्यतीत करने की आज्ञा दी गयी है l
संस्कार का अर्थ क्या है ?
हमारे चित, मन पर जो पिछले जन्मो के पाप कर्मो का प्रभाव है उसको हम मिटा दें और अच्छा प्रभाव को बना दे .. उसे संस्कार कहते हैं l

प्रत्येक संस्कार के समय यज्ञ किया जाता है,
भगवान् श्री राम के संस्कार ऋषि वशिष्ठ ने करवाए थे, और भगवन श्री कृष्ण के संस्कार ऋषि संदीपनी ने करवाए थे l

एक अच्छे सभ्य समाज के लिए संस्कार अत्यंत आवश्यक, पुराने समय में जो व्यक्ति के संस्कार न हुए हो उसे अच्छा नहीं माना जाता था

संस्कार हमारे धार्मिक और सामाजिक जीवन की पहचान होते हैं।
यह न केवल हमें समाज और राष्ट्र के अनुरूप चलना सिखाते हैं बल्कि हमारे जीवन की दिशा भी तय करते हैं।
भारतीय संस्कृति में मनुष्य को राष्ट्र, समाज और जनजीवन के प्रति जिम्मेदार और कार्यकुशल बनाने के लिए जो नियम तय किए गए हैं उन्हें संस्कार कहा गया है। इन्हीं संस्कारों से गुणों में वृद्धि होती है। हिंदू संस्कृति में प्रमुख रूप से 16 संस्कार माने गए हैं जो गर्भाधान से शुरू होकर अंत्येष्टी पर खत्म होते हैं। व्यक्ति पर प्रभाव संस्कारों से हमारा जीवन बहुत प्रभावित होता है। संस्कार के लिए किए जाने वाले कार्यक्रमों में जो पूजा, यज्ञ, मंत्रोच्चरण आदि होता है उसका वैज्ञानिक महत्व साबित किया जा चुका है।

कुछ जगह ४८ संस्कार भी बताए गए हैं।
महर्षि अंगिरा ने २५ संस्कारों का उल्लेख किया है।
वर्तमान में महर्षि वेद व्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार १६ संस्कार प्रचलित हैं।
ये है भारतीय संस्कृति के 16 संस्कार गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार, सीमन्तोन्नयन संस्कार, जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, निष्क्रमण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, मुंडन संस्कार, कर्णवेध संस्कार, उपनयन संस्कार, विद्यारंभ संस्कार, केशांत संस्कार, समावर्तन संस्कार, विवाह संस्कार, विवाहाग्नि संस्कार, अंत्येष्टि संस्कार।

आइये अपने 16 संस्कारों के बारे में जानें ....

1.गर्भाधान संस्कार -
ये सबसे पहला संस्कार है l
बच्चे के जन्म  से पहले माता -पिता अपने  परिवार  के  साथ  गुरुजनों  के  साथ  यज्ञ  करते  हैं  और  इश्वर  को  प्रार्थना  करते  हैं  की  उनके  घर  अच्छे  बचे  का  जन्म  हो, पवित्र  आत्मा, पुण्यात्मा  आये l जीवन की शुरूआत गर्भ से होती है। क्योंकि यहां एक जिन्दग़ी जन्म लेती है। हम सभी चाहते हैं कि हमारे बच्चे, हमारी आने वाली पीढ़ी अच्छी हो उनमें अच्छे गुण हो और उनका जीवन खुशहाल रहे इसके लिए हम अपनी तरफ से पूरी पूरी कोशिश करते हैं।
ज्योतिषशास्त्री कहते हैं कि अगर अंकुर शुभ मुहुर्त में हो तो उसका परिणाम भी उत्तम होता है। माता पिता को ध्यान देना चाहिए कि गर्भ धारण शुभ मुहुर्त में हो।
ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि गर्भधारण के लिए उत्तम तिथि होती है मासिक के पश्चात चतुर्थ व सोलहवीं तिथि (Fourth and Sixteenth Day is very Auspicious for Garbh Dharan)। इसके अलावा षष्टी, अष्टमी, नवमी, दशमी, द्वादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमवस्या की रात्रि गर्भधारण के लिए अनुकूल मानी जाती है।

गर्भधारण के लिए उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, मृगशिरा, अनुराधा, हस्त, स्वाती, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र बहुत ही शुभ और उत्तम माने गये हैं l

ज्योतिषशास्त्र में गर्भ धारण के लिए तिथियों पर भी विचार करने हेतु कहा गया है। इस संस्कार हेतु प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, द्वादशी, त्रयोदशी तिथि को बहुत ही अच्छा और शुभ कहा गया है l
गर्भ धारण के लिए वार की बात करें तो सबसे अच्छा वार है बुध, बृहस्पतिवार और शुक्रवार। इन वारों के अलावा गर्भधारण हेतु सोमवार का भी चयन किया जा सकता है, सोमवार को इस कार्य हेतु मध्यम माना गया है।

ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार गर्भ धारण के समय लग्न शुभ होकर बलवान होना चाहिए तथा केन्द्र (1, 4 ,7, 10) एवं त्रिकोण (5,9) में शुभ ग्रह व 3, 6, 11 भावों में पाप ग्रह हो तो उत्तम रहता है। जब लग्न को सूर्य, मंगल और बृहस्पति देखता है और चन्द्रमा विषम नवमांश में होता है तो इसे श्रेष्ठ स्थिति माना जाता है।

ज्योतिषशास्त्र कहता है कि गर्भधारण उन स्थितियों में नहीं करना चाहिए जबकि जन्म के समय चन्द्रमा जिस भाव में था उस भाव से चतुर्थ, अष्टम भाव में चन्द्रमा स्थित हो। इसके अलावा तृतीय, पंचम या सप्तम तारा दोष बन रहा हो और भद्रा दोष लग रहा हो।
ज्योतिषशास्त्र के इन सिद्धान्तों का पालन किया जाता तो कुल की मर्यादा और गौरव को बढ़ाने वाली संतान घर में जन्

2. पुंसवन  संस्कार -
पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है।
पुंसवन संस्कार गर्भस्थ बालक के लिए किया जाता है, इस संस्कार में गर्भ की स्थिरता के लिए यज्ञ किया जाता है l

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार-
यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्च सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। भक्त प्रह्लाद और अभिमन्यु इसके उदाहरण हैं। इस संस्कार के अंतर्गत यज्ञ में खिचडी की आहुति भी दी जाती है l

4. जातकर्म संस्कार-
बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से गर्भस्त्रावजन्य दोष दूर होते हैं।
नालछेदन के पूर्व अनामिका अंगूली (तीसरे नंबर की) से शहद, घी और स्वर्ण चटाया जाता है।
जब नवजात शिशु जन्म लेता है तब 1% घी, 4% शहद से शिशु की जीभ पर ॐ लिखते हैं ..

5. नामकरण संस्कार-
जन्म के बाद 11वें या सौवें या 101 वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है।
सपरिवार और गुरुजनों के साथ मिल कर यज्ञ किया जाता है तथा ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष आधार पर बच्चे का नाम तय किया जाता है।
बच्चे को शहद चटाकर सूर्य के दर्शन कराए जाते हैं।
उसके नए नाम से सभी लोग उसके स्वास्थ्य व सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।
वेद मन्त्रों में जो भगवान् के नाम दिए गए हैं, जैसे नारायण, ब्रह्मा, शिव - शंकर, इंद्र, राम - कृष्ण, लक्ष्मी, देव - देवी आदि ऐसे समस्त पवित्र नाम रखे जाते हैं जिससे बच्चे में इन नामों के गुण आयें तथा बड़े होकर उनको लगे की मुझे मेरे नाम जैसा बनना है l

6. निष्क्रमण संस्कार-
जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं।
निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना ... बच्चे को पहली बार घर से बाहर खुली और शुद्ध  हवा में लाया जाता है

7. अन्नप्राशन संस्कार-
गर्भ में रहते हुए बच्चे के पेट में गंदगी चली जाती है, उसके अन्नप्राशन संस्कार बच्चे को शुद्ध भोजन कराने का प्रसंग होता है। बच्चे को सोने-चांदी के चम्मच से खीर चटाई जाती है। यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात ६-७ महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है, इससे पहले बच्चा अन्न को पचाने की अवस्था में नहीं रहता l

8. चूडाकर्म या मुंडन संस्कार-
बच्चे की उम्र के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं और यज्ञ किया जाता है जिसे वपन क्रिया संस्कार, मुंडन संस्कार या चूड़ाकर्म संस्कार कहा जाता है। इससे बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है।

9. कर्णभेद या कर्णवेध संस्कार-
कर्णवेध संस्कार इसका अर्थ है- कान छेदना। परंपरा में कान और नाक छेदे जाते थे। यह संस्कार जन्म के छह माह बाद से लेकर पांच वर्ष की आयु के बीच किया जाता था। यह परंपरा आज भी कायम है। इसके दो कारण हैं,
एक- आभूषण पहनने के लिए।
दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है।
इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है।
वर्तमान समय में वैज्ञानिकों ने भी कर्णभेद संस्कार का पूर्णतया समर्थन किया है और यह प्रमाणित भी किया है की इस संस्कार से कान की बिमारियों से भी बचाव होता है l
सभी संस्कारों की भाँती कर्णभेद संस्कार को भी वेद मन्त्रों के अनुसार जाप करते हुए यज्ञ किया जाता है l

10. उपनयन संस्कार -
उप यानी पास और नयन यानी ले जाना।
गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार।
उपनयन संस्कार बच्चे के 6 - 8 वर्ष की आयु में किया जाता है, इसमें यज्ञ करके बच्चे को एक पवित्र धागा पहनाया जाता है, इसे यज्ञोपवीत या जनेऊ भी कहते हैं l बालक को जनेऊ पहनाकर गुरु के पास शिक्षा अध्ययन के लिए ले जाया जाता था। आज भी यह परंपरा है।
जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं।
फिर हर सूत्र के तीन-तीन सूत्र होते हैं। ये सब भी देवताओं के प्रतीक हैं। आशय यह कि शिक्षा प्रारंभ करने के पहले देवताओं को मनाया जाए। जब देवता साथ होंगे तो अच्छी शिक्षा आएगी ही।

अब बच्चा द्विज कहलाता है, द्विज का अर्थ होता है जिसका दूसरा जन्म हुआ हो, अब बच्चे को पढाई करने के लिए गुरुकुल भेजा जाता है l
पहला जन्म तो हमारे माता पिता ने दिया लेकिन दूसरा जन्म हमारे आचार्य, ऋषि, गुरुजन देते हैं, उनके ज्ञान को पाकर हम एक नए मनुष्य बनते हैं इसलिए इसे द्विज या दूसरा जन्म लेना कहते हैं l
यज्ञोपवीत  पहनना गुरुकुल  जाने, ज्ञानी होने, संस्कारी होने का प्रतीक है l

कुछ लोगों को ग़लतफहमी है की यज्ञोपवीत का धागा केवल ब्राह्मण लोग ही धारण अक्र्ते हैं, वास्तब में आज कल केवल ब्राह्मण ही रह गए हैं जो सनातन परम्पराओं को पूर्णतया निभा रहे हैं, जबकि पुराने समय में सभी लोग गुरुकुल में प्रवेश के समय ये यज्ञोपवीत पवित्र धागा पहनते थे..... यानी की जनेऊ धारण करते थे l

11.  वेदाररंभ या विद्यारंभ संस्कार
जीवन को सकारात्मक बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। शिक्षा का शुरू होना ही विद्यारंभ संस्कार है। गुरु के आश्रम में भेजने के पहले अभिभावक अपने पुत्र को अनुशासन के साथ आश्रम में रहने की सीख देते हुए भेजते थे।
ये संस्कार भी उपनयन संस्कार जैसा ही है, इस संस्कार के बाद बच्चों को वेदों की शिक्षा मिलना आरम्भ किया जाता है गुरुकुल में
वर्तमान समय में हम जैसा अधिकाँश लोगों ने गुरुकुल में शिक्षा नहीं पायी है इसलिए हमे अपने ही धर्म के बारे में  बहुत बड़ी ग़लतफ़हमियाँ हैं, और ना ही वर्तमान समय में हमारे माता-पिता को अपनी संस्कृति के बारे में पूर्ण ज्ञान है की वो हमको हमारे धर्म के बारे में बता सकें, इसलिए हमारे प्रश्न मन में ही रह जाते हैं l अधिकाँश अभिभावक तो बस कभी कभी मन्दिर जाने को ही "धर्म" कह देते हैं  

ये हमारा 11वां संस्कार है, अब जब गुरुकुल में बच्चे पढने जा रहे हैं और वो वहां पर वेदों को पढ़ना आरम्भ करेंगे तो बहुत ही आश्चर्य की बात है की हम वेदों को सनातन धर्म के धार्मिक ग्रन्थ मानते हैं और गुरुकुल में बच्चों को यदि धार्मिक ग्रन्थ की शिक्षा दी जाएगी तो वो इंजीनियर, डाक्टर, वैज्ञानिक, अध्यापक, सैनिक आदि कैसे बनेंगे ?
वास्तव में हम लोगों को यह नहीं पता की जैसे अंग्रेजी डाक्टर होते हैं वैसे ही हमारे भारत वर्ष में भी वैद्य हैं l जैसे आजकल के डाक्टर रसायनों के अनुसार दवाइयां देते हैं खाने के लिए उसी प्रकार हमारे आचार्य और वैद्य शिरोमणी जड़ी बूटियों की औषधियां बनाते थे, जो की विश्व की सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति है..... आयुर्वेद हमारे वेदों का ही एक अंश  है l
ऐसे ही वेद के अनेक अंश हैं जैसे ... "शस्त्र-शास्त्र" ...जो भारत की युद्ध कलाओं पर आधारित हैं l
गन्धर्व-वेद ... संगीत पर आधारित है l

ये सब उपवेद कहलाते हैं l

हम सबको थोड़े अपने सामान्य ज्ञान या व्यवहारिक ज्ञान के अनुसार भी सोचना चाहिए की भारत में पुरानी संस्कृति जो भी थीं....
क्या वो बिना किसी समाज, चिकित्सक, इंजिनियर, वैज्ञानिक, अध्यापक, सैनिक आदि के बिना रह सकती थी क्या ...? बिलुल भी नहीं .... वेदों में समाज के प्रत्येक भाग के लिए ज्ञान दिया गया है l

केशांत संस्कार- केशांत संस्कार का अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करे।

12. समवर्तन संस्कार -
समवर्तन का अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम में शिक्षा प्राप्ति के बाद ब्रह्मचारी  को फिर दीन-दुनिया में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षो के लिए तैयार करना।
जब बच्चा (लडका या लड़की ) गुरुकुल में अपनी शिक्षा पूरी कर लेते हैं, अर्थान उनको वेदों के अनुसार विज्ञान, संगीत, तकनीक, युद्धशैली, अनुसन्धान, चिकित्सा और औषधी, अस्त्रों शस्त्रों के निर्माण, अध्यात्म, धर्म, राजनीति, समाज आदि की उचित और सर्वोत्तम शिक्षा मिल जाती है उसके बाद यह संस्कार किया जाता है l
समवर्तन संस्कार में ऋषि, आचार्य, गुरुजन आदि शिक्षा पूर्ण होने के पच्चात अपने शिष्यों से गुरु दक्षिणा भी मांगते हैं l
वर्तमान समय में इस संस्कार का एक विदूषित रूप देखने को मिलता है जिसे Convocation Ceremony कहा जाता है l

13. विवाह संस्कार-
विवास का अर्थ है पुरुष द्वारा स्त्री को विशेष रूप से अपने घर ले जाना। सनातन धर्म में विवाह को समझौता नहीं संस्कार कहा गया है। यह धर्म का साधन है। दोनों साथ रहकर धर्म के पालन के संकल्प के साथ विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।
ये संस्कार बहुत ही महत्वपूर्ण  संस्कार  है, ये  भी  यज्ञ  करते  हुए  और  वेदों पर आधारित मन्त्रों को पढ़ते हुए किया जाता है, वेद-मन्त्रों में पति और पत्नी के लिए कर्तव्य दिए गए हैं और इन को ध्यान में रखते हुए अग्नि के 7 फेरे लिए जाते हैं l

जैसे हमारे माता पिता ने हमको जन्म दिया वैसे ही हमारा कर्तव्य है की हम कुल परम्परा को आगे बाधाएं, अपने बच्चों को सनातन संस्कार दें और धर्म की सेवा करें l
विवाह संस्कार बहुत आवश्यक है ... हमारे समस्त ऋषियों की पत्नी हुआ करती थीं, ये महान स्त्रियाँ आध्यात्मिकता में ऋषियों के बराबर थीं l

14. वानप्रस्थ संस्कार

अब 50 वर्ष की आयु में मनुष्य को अपने परिवार की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर जंगल में चले जाना चाहिए और वहां पर वेदों की 6 दर्शन यानी की षट-दर्शन में से  किसी 1 के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, ये संस्कार भी यज्ञ करते हुए किया जाता है और  संकल्प किया जाता है की अब मैं इश्वर के ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करेंगे l

15. सन्यास संस्कार-
वानप्रस्थ संस्कार में जब मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसके बाद वो सन्यास लेता है, वास्तव में सन्यास पूरे समाज के लिए लिया जाता है , प्रत्येक सन्यासी का धर्म है की वो सारे संसार के लोगों को भगवान् के पुत्र पुत्री समझे और अपना बचा हुआ समय सबके कल्याण के लिए दे दे l
सन्यासी को कभी 1 स्थान पर नही रहना चाहिए उसे घूम घूम कर साधना करते हुए लोगो के काम आना चाहिए, अब सारा विश्व ही सन्यासी का परिवार है, कोई पराया नही है l

सन्यास संस्कार 75 की वर्ष की आयु में होता है पर अगर इस संसार से वैफाग्य हो जाए तो किसी भी आयु में सन्यास लिया जा सकता है l
सन्यासी का धर्म है की वो धर्म के ज्ञान को लोगों को बांटे, ये उसकी सेवा है, सन्यास संस्कार करते समय भी यज्ञ किया जाता है वेद मन्त्र पढ़ते हुए और सृष्टि के कल्याण हेतु बाकी जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा की जाती है l

16. अंत्येष्टि संस्कार-
इसका अर्थ है अंतिम यज्ञ। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। मृत्यु के साथ ही व्यक्ति स्वयं इस अंतिम यज्ञ में होम हो जाता है। हमारे यहां अंत्येष्टि को इसलिए संस्कार कहा गया है कि इसके माध्यम से मृत शरीर नष्ट होता है। इससे पर्यावरण की रक्षा होती है।
अन्त्येष्टी संस्कार के समय भी वेद मन्त्र पढ़े जाते हैं, पुराने समय में "नरमेध यज्ञ" जिसका वास्तविक अर्थ अन्त्येष्टी संस्कार था.. उसका गलत अर्थ निकाल कर बलि मान लिया गया था l