परमात्मा, देव, गुरु अंतर

by January 14, 2018 0 comments

सर्वप्रथम प्रत्येक भाई बहन मातृ शक्ति तथा समस्त जनों में विराजमान ज्योति को मेरा कोटि कोटि प्रणाम।

आज का विषय है शिवः और देव गण।
तो बन्धु हमारे समाज मे एक बहुत बड़ी भ्रांति उत्पन्न हो गई है वो है गुरु, देव, भगवान की।
ऐसा होने के कई कारण है जिसमे सबसे बड़ा कारण है अज्ञानता। तो इससे पहले की हम इस विषय मे आगे बढ़े आएं हम पहले कुछ बिंदुओं पर नज़र ढालें।

गुरु, देव, भगवान...
तो बन्धु सर्व प्रथम हम समझते हैं गुरु क्या है। गुरु एक हिन्दी संस्कृति शब्द है जिसके कई भाव लगाएं जातें हैं जो स्तिथि तथा भावों पर निर्भर करता है। हम ब्रहस्पति को गुरु बोलते हैं तो कई लोग ब्रहस्पति वार को गुरुवार से सम्बोधित करते हैं। कुछ पाठशाला में पढाने वाले अध्यापक अथवा अध्यापिका को गुरु कहते हैं। कुछ अपने मार्गदर्शक को गुरु कहते हैं तथा उनकी भी उपासना करते हैं क्योंकि उन्होंने उनका मार्गदर्शन किया अथवा सही उचित राह दिखाया। तो उपरोक्त सभी उद्धरणों से हमने यह समझा कि गुरु एक व्यक्ति है जो हमें किसी न किसी रूप में शिक्षा एवं ज्ञान देता है। अब बात करते हैं उनकी जो गुरु को भगवान कहते हैं तो मित्रो इस तथ्य के पीछे के दो कारण है
पहिला कि हमने भगवान को प्राप्त भाव बोध नही किया होता तथा गुरु उस सत्य भाव भगवान को जानता है इस लिए हम उस गुरु के मार्गदर्शन पर इतना निर्भर हो जाते हैं कि गुरु को ही भगवान मानने लगते हैं।
दूसरा कारण हैं की परमात्मा द्वारा सृजित प्रत्येक प्राणी में दस परमात्मा का एक अंश आत्मा विद्यमान है अतः प्रेतक प्राणी में भगवान है और इसी कारण जो कुछ हमसे अधिक ज्ञान रखता है वह गुरु अथवा भगवान मान लिया जाता है।

अब बात करते हैं देव कौन हैं?
तो बन्धु जहां कुछ मान्यताएं गुरु को भगवान मानती हैं वहीं कुछ सन्त समाज के दिशा निर्देश से देवों को भी भगवान माना जाता है। इसमें सबसे बड़ी भ्रांति तो यह है लोग 33करोड़ देवी देवताओं को मानते हैं जबकि किसी भी गुणी सन्त से पूछा जाए तो वो बता अथवा गिनवा नही पाता और फिर एक ही देव को अलग अलग नामों से गिनवाने लगता है। पंरन्तु सत्य तो यह है कि 33कोटि भाव 33प्रकार के देव हैं। अब बात करते हैं यह देव हैं कौन? तो बन्धु जैसे एक संस्थान अथवा कार्यालय चलाने के लिए जैसे मनुष्य द्वारा कुछ पदों पर व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता है तथा उनकी कार्यकाल की एक निश्चित रूप रेखा होती है तथा कुछ विशेष शक्तियां दी जाती है वैसे ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इंद्र, पवनदेव,अग्निदेव, यम, गणेश आदि यह सब देव एक कार्यप्रणाली के सदस्य हैं। भगवान के समीप हैं तथा मनुष्य से लंबी आयु के होते हैं। इनके पास जो जो विभाग वितरित हैं यह वही विभागों को नियंत्रण करने हेतु कार्यनिर्वाह करते हैं। जैसे एक छोटे पद पर विराजमान व्यक्ति उच्चपदधिकारी की दिशा अनुसार चलता है वैसे ही प्रत्येक देव आपने से उच्चाधिकारी की बात सुनते एवं मानते हैं तथा उनके मार्गदर्शन हेतु उनके प्रेम में रहते हैं। ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य अपने गुरु के लिए भाव रखता है और आज्ञा का पालन करता है।  अब आपकी एक भ्रांति यह भी दूर हो गई कि देवता भगवान होते हैं। देवता केवल अपने कर्म कर रहें हैं तथा हम उनको इस लिए पूजते हैं क्योकि वो हमारे जीवन निर्वाह हेतु सुख सुविधाएं प्रदान करते हैं तथा हमारे गुरु तुल्य अथवा गुरु के गुरु होने के नाते पूजनीय हैं। वो अलग बात है मनुष्य प्रवित्ति ने अपने सम्मान लोभी देवताओं को भी समझ कर अपने अपने लाभ के लिए देवताओं को बांट कर उनको अपना भगवान बना कर समस्त समाज को आपस मे बांट रखा है और प्रत्येक व्यक्ति अपने इष्ट गुरु देव को श्रेष्ठ मानता बतलाता है। अब आपके मन मे जिज्ञासा उत्पन्न हो रही होगी कि भगवान कौन है कौन है वो परमात्मा जिसको हम सब अलग अलग रूपों में ढूंढने की कोशिश करते हैं? तो आएं जानते हैं उस परमात्मा के बारे में।

भगवान:-
सर्वप्रथम आपको इतना तो बोध हो गया कि भगवान न कोई देव हैं न गुरु। गुरु मनुष्य देह धारित मनुष्य तथा देव दिव्य देह वाले गण होते हैं। पंरन्तु जो सभी प्रकार की देहों में अपना अंश बनाए बैठे हैं वो परमात्मा स्वयं देह विहीन भाग निराकार हैं। निराकार भाव जो किसी प्रकार की देह से मुक्त है। जो न जन्मा है ना मृत्यु को प्राप्त होगा जो सर्वत्र विध्यमान है तथा जिस रूप में आप उसको देखने के लिए भावों को उत्पन्न करते हैं वैसे ही भावों से भगवान स्वतः ही उस रूप में आपको दर्शन देने आ जाते हैं। भाव भगवान को अगर अपने गुरु ने देखो तो आपके गुरु के रूप में होंगें, अगर देवों के रूप में तो उनमे होंगे, अगर बालक में तो उनमें होंगे, अगर मूर्ति में तो उनमें। जिस रूप में आप मानोगे उस रूप में आपको प्राप्त होंगे। इससे एक यह बात स्पष्ट होती कि भगवान से मिलन आपकी भक्ति, श्रद्धा पर भी निर्भर करता है। अब आप  सोच रहें होंगे कि भगवान इतने रूप कैसे धारण कर सकते हैं तो यह वैसे ही है जैसे विधुत सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशवान तो करती है ही पंरन्तु उसके साथ साथ कितने उपकरणों के माध्यम से हमारे दैनिक जीवन मे हमारी सहायता करती है।

अब प्रश्न उठता है कि क्या भगवान पुरुष हैं यां नारी?
तो बन्धु न भगवान पुरुष तत्व है न ही नारी तत्व भगवान निर्गुण हैं। अब आप सोच रहें होंगे सृष्टि तो नारी तत्व है तो यह कैसे हो सकता है उसको बनाने वाले का कोई गुण न हो। तो आपको बता दें विज्ञान में -- मिल कर + बनाते हैं। भाव एक शक्ति का विभाजन करने पर उसके दो अपूर्ण भाग बन जाते हैं। अतः मिलने पर वो पुनः एक हो जाते हैं। भगवान भी इसी प्रकार एक संज्ञा है पंरन्तु अगर हम भगवान को ध्यान से समझें तो हमारे वेदों में भगवान को शिवः तथा शक्ति की संज्ञा भी दी है। ध्यान दीजिएगा शिवः भाव शंकर, महादेव, रुद्र, नही है शिवः भाव स्थिरता है तथा शक्ति भाव प्रवाह। जैसे एक उपकरण से अगर जल का निकास हो रहा है तो निषय ही वहां स्थिरता तथा प्रवाह दोनों विध्यमान है। भाव शिवः तथा शक्ति विध्यमान हैं। दोनों के मिलन से इस सृष्टि का निर्माण हुआ। इसी प्रकार भगवान ने सृष्टि का नियम बनाया है जिसमे प्रत्येक आत्मा को एक निश्चित आत्मा के साथ गठबंधन करके भेजा है भाव वो दोनों कहीं भी हों कहीं भी जन्म लें उनका मिलान तह होता है इसी लिए पति को शास्त्रों में अर्धांग तथा पत्नी को अर्धांगिनी कहा जाता है। तथा शिवः शक्ति का योग परमात्मा कहलाता है। जिसे लोग रब्ब, अल्लाह, भगवान, खुदा, जैसे नामों से जानते हैं तथा उसकी प्रतिमा को अनेकों रूपों में देखने तथा ढूंढने की चेष्ठा करते हैं।

आएं गुरु, देवों से ऊपर उठ उस परभ्रह्म को जाने। तथा शिवः शक्ति की पूजा करें जिसके लिए आपको किसी मठ, किसी मंदिर, मस्ज़िद,  गुरुद्वारे, की आवश्यकता नहीं अपितु केवल श्रध्दा एवं प्रेम की आवश्यकता है। एकांत में मौन बैठ उस परमात्मा को ध्याएँ। अगर यही कार्य आप अपने जीवन साथी के साथ बैठ पूर्ण निष्ठा से करें तो शीघ्र ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त होगा। तथा पांच क्लेशों से मुक्ति प्राप्त होगी।

अतः हमने आज जाना कि परमात्मा, देव, गुरु क्या है कृपया आगे बढ़ कर परमात्मा को प्राप्त करें। गुरु, देव ठीक वैसे कार्य करते हैं जैसे घर पर पहले माता पिता ने सिखाया, उसके उपरांत और ज्ञान हेतु हम अध्यापक के पास शिशुपाठशाला में गए, फिर प्राथमिक पाठशाला से आगे का ज्ञान लिया उसके उपरांत माध्यमिक पाठशाला, उच्चपाठशाला, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि से ज्ञान प्राप्ति हेतु हम गुज़रते हैं वैसे ही हम प्रथम पूजनीय मात पिता, उनके उपरांत हम मंदिर में आस्था केंद्रित करते हैं, तथा शास्त्रों का अध्यन करने हेतु गुरु प्रति आस्था बनाते हैं (इसी लिए कहा जाता है कि गुरु बिन गति नही क्योकि वह हमें शास्त्रों का ज्ञान अर्जित करना सिखाते हैं) उसके उपरांत जब हम देवों देवतों में आस्था बनातें हैं इसके ऊपर का मार्ग हमे गुरु नही बता पाता यां समझा पाता तो हम ऊना सफर समाप्त समझने लगते हैं अथवा गुरु को ही भगवान बना कर बैठ जाते हैं पंरन्तु आंखें बंद कर लेने से कबूतर को लगता जरूर है कि बिल्ली चली गई पंरन्तु वास्तव में तो आंखें खोलने पर आगे का दिखेगा। और वो आँखें गुरु नही खोल सकता न कोई देवता वो स्वाध्याय का कार्य है भाव हमारा कार्य है।

और राह बहुत सरल हो सकता है अगर आप गुरु भी भगवान को बना लें, देव भी भगवान को तथा आस्था केवल एक स्थान पर केंद्रित करें उधारण के लिए योग में कुण्डलिनी शक्ति को जागरण करना अथवा धारणा ध्यान समाधि में उस निर्गुण, निराकार को अपने भावों के रूप में जानना।

अब इसका क्या लाभ:-
इसका लाभ आप शास्त्रों का ज्ञान लें शास्त्र पढ़ें उसके लिए आपको संस्कृत की विद्या के लिए गुरु की आवश्यकता है तथा आत्म ज्ञान तक गुरु को समर्पित रहें उसके उपरांत आत्मज्ञान प्राप्त कर सारे बंधन तोड़ केवल उस परमात्मा को ही पूजें। इसका लाभ आपको कोई छल नही सकता, कोई गलत मार्गदर्शन नही कर सकता, और न किसी को आपसे लोभ रहेगा क्योंकि आप किसी व्यक्ति को अपनी आस्था का प्रतीक नही अपितु परमात्मा के प्रति निष्ठावान होंगे। तो आएं उस परमात्मा शिवः को जाने और उसी के अंदर समा जाएं। इसके लिए विनम्रता तथा प्रेम की आवश्यकता है।

योग से स्वयं को साधें।

धन्यवादकर्ता
लघिमा पुष्करणा

योगाचार्य विनय पुष्करणा

Writers:- Rajan Pushkarna, Viney Pushkarna, Pooja Pushkarna, Vibudhah Office

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