अन्नप्राशन तथा शिशु

by May 04, 2018 0 comments

अन्नप्राशन संस्कार किसी योग्य पड़ित द्वारा बताये गए शुभ मुहूर्त पर किया जाता है। शिशु को स्नान कराकर नया कपडा पहनाया जाता है। बहुधा इस अवसर पर शिशु को पारम्परिक परिधान धोती कुर्ता या लहंगा चोली पहनाया जाता है।

पूजा और हवन के साथ बच्चे के स्वास्थ्य और खुशी की कामना लिए अन्नप्राशन संस्कार आरम्भ किया जाता है। इसके बाद शिशु को पूजन के प्रसाद के रूप में ठोस आहार खिलाया जाता है। जिसमे खीर मुख्यता रहती है। चांदी के चम्मच, सिक्के का इस्तेमाल करके खाद्य पदार्थ ईश्वर का नाम ले कर खिलाया जाता है।

इस धार्मिक संस्कार समारोह में एक आनंददायी खेल के रूप में प्रतीकात्मक वस्तुओं को केले के पत्ते या चांदी के बर्तन में शिशु के सामने रख दिया जाता है। जिसमे से शिशु कोई एक अपने हाथ से उठता है। इसके लिए निम्नलिखित वस्तुओं का उपयोग किया जाता है।

पुस्तकें:- सीखने का प्रतीक

रत्न :-धन का प्रतीक

कलम:- ज्ञान का प्रतीक

मिट्टी:- संपत्ति का प्रतीक

खाना:- प्यार का प्रतीक खाद्य वस्तुएं

परिवार के लोग और मित्रगण बच्चा जब इन वस्तुओं में से कोई विकल्प चुनता है तो खुशी के साथ जयघोष करते हैं। ऐसा मान जाता है की शिशु जिस किसी बस्तु को पहले उठाता है भविष्य में उसी वस्तु से जुड़ा हुआ व्यवसाय या नौकरी करता है।

सरकारी जानकारी जाल स्थल की ओर से अन्नप्राशन के बारे में क्या कहा गया है।


अन्नप्राशन

पाँचवें या छठे महीने में, जब बालक के प्रायः दाँत निकल आते हैं, तब उसे उबला हुआ अन्न खिलाया जाता है। इसमें वह दही, मधु, घी, चावल आदि खिला सकते हैं। इस संस्कार के पूर्व शिशु अपने भोजन के लिए माता के दूध या गाय के दूध पर निर्भर रहता था। जब उसकी पाचन शक्ति बढ़ जाती है और उसके शरीर के विकास के लिए पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता पड़ती है, तब बालक को प्रथम बार अन्न अथवा ठोस भोजन दिया जाता है।

अन्नप्राशन का ऐतिहासिक समीक्षा :-

वैदिक संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रंथों में अन्नप्राशन संस्कार का विशिष्ट संस्कार के रुप में कोई उल्लेख या विवरण प्राप्त नहीं होता है, किंतु गृह्यसूत्रों में आकर इसके काल, भोजन एवं प्रकार का संक्षिप्त- सा विवरण मिलने लगता है, ( देखें, आश्व० ( 
1/16 ) 1-6 ), शांखायन० (1-27), आप० ( 16/1-2 ), हिरण्यकेशि० ( 2/ 5/ 1-3 ), भारद्वाज० ( 1/27 ), मानव० ( 1/20/ 1/ 6 ), वैखानस ( 2- 32 ), गोभिल तथा खादिर ने उसे छोड़ दिया है। पार० गृ० सू० 1.19 तथा मानव एवं शंख के अनुसार यह संस्कार जन्म से पाँचवें या छठे महीने में किया जाना चाहिए, किंतु मनु (2.34 ) तथा याज्ञवलक्य ( 1.12 ) दोनों ही इसके लिए से 12 मास के बीच का समय उपयुक्त मानते हैं तथा साथ ही यह मत भी कि पुत्र शिशु का अन्नप्राशन सम मासों ( 6, 8, 10, 12 ) तथा कन्या शिशु का विषम मासों ( 5, 7, 9, 11 ) में किया जाना अधिक उपयुक्त होता है, मनु तो उपर्युक्त शास्रीय विधान के अतिरिक्त कुल परंपरागत विधान को भी पूरी मान्यता प्रदान करते हैं, यद्यपि स्मृतिकारों के द्वारा इसके किसी प्रकार के अनुष्ठान का विधान नहीं किया है।

इसका जो आनुष्ठानिक विधान उपर्युक्त गृह्यसूत्रों में दिया गया है, उसके अनुसार एतदर्थ पाँच महीने के बाद किसी भी शुभ दिन का चयन कर प्रातः कालीन स्नानादि के उपरांत स्थालीपाक ( चावल की खीर ) पका कर उसमें से उसके आधारभूत भाग की दो आहुतियाँ तथा घी की एक आहुति निर्दिष्ट मंत्रों के साथ गृहस्थाग्नि में डाले।

क्षेत्रीय अनुष्ठानः :-

इनमें से क्षेत्र विशेष में प्रचलित कतिपय अनुष्ठानों का विधान निम्न रुपों में पाया जाता है -

i. तुलादान :-

उत्तर भारत के मैदानी भागों में प्रचलित पद्धतियों में इस अवसर पर तुलादान का विधान भी पाया जाता है। तद्नुसार शिशु को तुला के एक पल्ले पर रखकर, उसके दूसरे पल्ले पर उसके भार के बराबर अन्न रख कर उसे ब्राह्मण को दान कर दिया जाता है। यह कार्य घर के किसी वृद्ध व्यक्ति के द्वारा किया जाता है। इसका मंत्र है - 'ऊँ तेजोच्सि शुक्रममृतम्०' आदि।

ii. पात्रपूजन :-

इसके अनुसार अन्नप्राशन से पूर्व उन पात्रों का पूजन किया जाता है जिनमें कि शिशु को प्राशन कराया जाना होता है। इसमें इन पात्रों पर रोली से स्वास्तिक का चिन्ह अंकित कर उन्हें पुष्प, अक्षत आदि से यथाविधि पूजा जाता है। उल्लेख्य है कि संपन्न घरों में ये पात्र चाँदी के होते हैं, कम- से- कम प्राशन कराने वाली चम्मच तो चाँदी की होती ही है। निर्धन लोग इसके स्थान पर चाँदी के रुपये से खिला लेते हैं।

आनुष्ठानिक प्रक्रिया के अधीन किये गये संस्कार में एतदर्थ तैयार किये गये स्थालीपाक खीर की अग्नि में यथाविहित आहुतियाँ देने के उपरांत अवशिष्ट भाग में से शिशु को चाँदी की चम्मच या अन्य उपलब्ध साधन से पाँच बार थोड़ा- थोड़ा उसके मुंह में लगाकर इस संस्कार को संपन्न किया जाता है, अंत में मुख प्रक्षालनार्थ जल भी दिया जाता है।

अन्नप्राशन का सांस्कृतिक एवं प्रतीकात्मक महत्व :-

अन्न प्राशन संस्कार के लिए नियत विधान के पीछे यह भाव था कि माता लाड़- प्यार के कारण शिशु को अनिश्चित काल तक अपना स्तनपान न कराती रहे। इससे माता तथा शिशु दोनों के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है तथा शिशु को अन्य ठोस पोषक आहार न मिलने से उसका सम्यक रुप से शारीरिक विकास भी नहीं हो सकेगा। अतः समय आने पर इसे अवश्य किया जाना चाहिए।

पाँचवें महीने के बाद किये जाने के पीछे यह भाव है कि हमारी शारीरिक व बौद्धिक अभिवृद्धि में जिन तीन प्रकार के पदार्थों का योगदान होता है, वे हैं - (
1. ) पेय, (2. )लेह्य/ चूस्य तथा भोज्य, किंतु इनके लिए हमारी शारीरिक पाचन प्रक्रिया का विकास शनै:- शनै: होता है। शिशु- स्वास्थ्य विज्ञानियों का कहना है कि प्रारंभिक पाँच- छः महीने तक शिशु की भोजन- पाचन प्रणाली इतनी पुष्ट नहीं होती कि वह पेय के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ का पाचन कर सके। किंतु अब वह स्थिति विकसित हो चुकी होती है, जबकि उसे शारीरिक अभिवृद्धि के लिए माता के दुग्ध अथवा अन्य पेय पदार्थों के अतिरिक्त अन्नादि पदार्थों की भी आवश्यकता होने लगती है।

जीवन धारण के लिए तथा शारीरिक शक्ति के लिए अन्न का महत्व सर्वविदित है ही, इसलिए हमारे दार्शनिकों ने अन्न को प्राण ब्रह्म, यज्ञ और विष्णु कहा है। किंतु पेय पर निभर रहने वाला शिशु उसे अभी भोज्य ( ठोस ) रुप में ग्रहण नहीं कर सकता। दन्ताभाव के कारण न तो वह उसका चर्वण ही कर सकता है और न उसकी पाचन क्रिया ही उसे पचाने के लिए पुष्ट हुई होती है। अतः अन्नप्राशन के लिए उसका लेह्य पदार्थ, स्थालीपाक बनाया जाता है। संस्कार पद्धतियों के अनुसार प्राशनार्थ तैयार किये गये लेह्य चरु में वैदिक मंत्रों के साथ मधु, घृत तथा तुलसीदल भी मिश्रित किया जाता है। जिनका अपना- अपना महत्व माना गया है। इन प्रथम प्राशनीय पदार्थों का चयन इस विशेष आस्था के अंतर्गत किया जाता है कि हमारा भोजन हमारे शरीर के अतिरिक्त हमारे मन एवं बुद्धि को भी प्रभावित करता है(जैसा खाये अन्न,वैसा होये मन)।

इस संदर्भ में हमारे आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधाताओं का भी मानना है कि हमारे रहन- सहन के समान ही हमारे खान- पान का भी हमारे मन व बुद्धि पर प्रभाव पड़ता है। भोजन से पड़ने वाले इस अंतर को सात्विक पदार्थभोजी तथा मादक पदार्थभोजी व्यक्तियों में स्पष्टतः देखा जा सकता है। अतः शिशु को प्राणत्व प्रदान करने वाले तथा उसके चरित्र एवं स्वभाव के इस प्रथम अवसर पर उसका रुप ऐसा होना चाहिए, जो सुपाच्य होने के साथ- साथ उसके आने वाले जीवन में माधुर्य का तथा सात्विक प्रवृत्तियों का संचार करने वाला हो। अन्नप्राशन में उपर्युक्त लेह्य व्यंजन का विधान इसी दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है।

इसके लिए शायद "पायसम्' ( खीर ) को ही सबसे अधिक उपयुक्त समझा गया, क्योंकि इसका रुप पेय तथा भोज्य के बीच का होता है तथा प्रतीकात्मक रुप में लण्डुल एवं दुग्ध की श्वेतता, शर्करा/ मधु के माधुर्य के साथ पौष्टिकता एवं तेजस्विता प्रदान करने वाले घृत, रोगनाशक एवं पाचन शक्ति को पुष्ट करने वाले तुलसीदल के मिश्रण में निहित भावना से स्पष्टतः अवबोध्य है।

इस अवसर पर तुलादान के विधान के पीछे भी शायद यही धारणा रही होगी कि भारतीय संस्कृति में व्यक्ति के लिए स्वयं भोजन करने से पूर्व उसमें अन्य प्राणियों को भी भागीदार बनाना चाहिए। वेद भगवान् का भी आदेश है "तेन त्यक्तेन भुंजीथा: ( यजु० 
40.1 )। एकाकी भोजन को पाप कहा गया है। इसलिए हमारी शास्रीय संस्कृति में व्यक्ति भोजन से पूर्व बलिवैश्वदेव, गोग्रास आदि के रुप में अपने भोजन का कुछ अंश अन्य प्राणियों को देना आवश्यक समझता था। इसी सांस्कृतिक परंपरा का पालन करने के लिए शिशु के द्वारा अन्नाहार प्रारंभ करने से पूर्व उसके कुछ भाग का दान आवश्यक समझा गया था।

इसी प्रकार इस अनुष्ठान की संपन्नता के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले रजत पात्रों के संबंध में भी कहा जा सकता है कि इसका चयन संभवतः रजत की स्वच्छता, निर्मलता तथा निर्विकारता ( इस पर जंग आदि का प्रभाव न होने से ) के कारण एवं गुणों की दृष्टि से इसे शीतल एवं सात्विक माना जाने के कारण ही किया गया होगा। इसके अतिरिक्त इसके चयन में शिशु की भौतिक समृद्धि की वह भावना भी रही होगी अर्थात् समृद्ध परिवार में उत्पन्न होना।

यहाँ पर यह भी विचारणीय है कि इस अनुष्ठान में हाथ से भोजन कराने की भारतीय परंपरा को छोड़कर चम्मच से खिलाने के पीछे स्वास्थ्य संबंधी यह विचारणा रही होगी कि पानी से हाथ धोये जाने पर भी उसके नाखूनों तथा हाथ की अंगुलियों की पोरों में कीटाणु हो सकते है। शिशु में अभी इन कीटाणुओं से लड़ने की प्रतिरोधात्मक स्वसंचालित प्रणाली का विकास नहीं हुआ होता है। इसमें किसी प्रकार की असावधानी होने पर भोजन कराने वाले व्यक्ति के हाथों पर चिपके हुए कीटाणुओं का भोजन के माध्यम उसके अंदर प्रवेश हो सकता है, किंतु चाँदी की चम्मच के द्वारा यह कार्य संपादित किये जाने की स्थिति में इस सम्भावना का परिहार हो जाता है।

http://www.ignca.nic.in/coilnet/ruh0025.htm



योगाचार्य विनय पुष्करणा

Writers:- Rajan Pushkarna, Viney Pushkarna, Pooja Pushkarna, Vibudhah Office

Vibudhah Tabloid is maintained and designed by Founder and Co-Founder of Vibudhah Organization to provide the real facts and truth of life. Our Aim is to provide you best knowledge with authentic reference.

  • |

0 comments:

Post a Comment

Thanks for Commenting.